Lekhika Ranchi

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शरतचंद्र चट्टोपाध्याय की रचनाएंः देवदास--12


देवदास ःशरतचन्द्र चट्टोपाध्याय
12

दो वर्ष हुए, पार्वती महेेन्द्र का विवाह करके निश्चिन्त हुई है। जलदबाला बुद्धिमती और कार्य-पटु है।

अब पार्वती के बदले गृहस्थी का बहुत-कुछ काम-काज वही करती है। पार्वती ने अब अपना मन दूसरी ओर लगाया है। आज पांच वर्ष हुए, उसका विवाह हुआ था; किन्तु अभी तक उसके कोई सन्तान नही हुई। अपने लड़की-लड़के के न रहने के कारण वह दूसरो के लड़की-लड़को को बहुत ह्रश्वयार करती है।

गरीब-गुरबे की बात को छोड़िये जिनके पास कुछ रुपये पैसे भी है, उनके पुत्र-पुत्रियो का भी अधिकांश भार वही वहन करती है। इसके अतिरिक्त ठाकुरबाड़ी के काम-काज, साधु-सन्यासियो की सेवा, लंगड़े-लूलो की शुश्रूषा मे अपना सारा दिन बिता देती थी। इसका व्यसन स्वामी को लगाकर पार्वती ने एक और अतिथिशाला भी निर्माण किया है। उससे निराश्रय और असहाय लोग अपनी इच्छा के अनुकूल रह सकते है। जमीदार के घर से उन लोगो को खाना-पीना मिलता है। और एक काम

पार्वती बहुत छिपाकर करती है, स्वामी को भी नही जानने देती। वह ऊंचे घराने के दरिद्र लोगो को गुप्त रूप से रुपये-पैसे से सहायता देती है। यही उसका निजी खर्च है। स्वामी के पास से प्रति मास जो कुछ उसको मिलता है, सब इसी मे खर्च कर देती है। किन्तु चाहे जिस तरह से जो कुछ व्यय होता था, वह सदर कचहरी के नायब और गुमाश्ता से नहीं छिपा रहता था। वे लोग आपस मे इस विषय पर बक-बक, झक-झक किया करते थे। दासियां लुक-छिपकर सुन आती है कि गृहस्थी का व्यय आजकल पहले की अपेक्षा दूना हो गया है; तहवील खाली पड़ गई, कुछ भी बचने नहीं पाता। गृहस्थी के बेजा खर्च बढ़ने से दास-दासियो को मर्मन्तक पीड़ा होती है। वे लोग ये सब बाते जलदबाला को सुना आती है। एक दिन रात मे उसने स्वामी से कहा-‘तुम क्या इस घर के कोई नही हो?’

महेन्द्र ने कहा-‘क्यों, क्या बात है?’

स्त्री ने कहा-‘दास-दासियां जानती है और तुम नही जानते? ससुर को तो नई मां प्राणो से बढ़कर है, वे तो कुछ कहेगे ही नही, परन्तु तुम्हे तो कहना उचित है!’

महेन्द्र ने बात नहीं समझी, परन्तु उत्सुक हो पूछा-‘किसकी बात कहती हो?’

जलदबाला गम्भीर भाव से स्वामी को मन्त्रणा देने लगी-‘नयी मां के कोई लड़की-लड़का तो है ही नही, फिर उन्हे गृहस्थी से क्यो प्रेम होने लगा, देखते ही नही हो सब उड़ाये डालती है?’

जलदबाला ने भू-कुंचित करके कहा-‘क्यो कैसे?’

जलदबाला ने कहा-‘तुम्हारे आंखे होती तो देखते! आजकल गृहस्थी का खर्च दूना हो गया, सदाव्रत, दान-खैरात, अतिथि-फकीर आदि के ऊपर अन्धाधुन्ध व्यय चढ़ रहा है। अच्छा, वे तो अपना परलोक सुधार रही है, किन्तु तुम्हारे लड़की-लड़के है? तब वे लोग क्या खायेगे? अपनी पूंजी बिकवाकर अन्त मे भीख मांगोगे क्या?’

महेन्द्र ने शैया पर बैठकर कहा-‘तुम किसकी बात कहती हो, मां की?’

जलदबाला ने कहा-‘मेरा भाग्य जल गया, जो ये सब बाते तुमसे मुझे कहनी पड़ती है।’

महेन्द्र ने कहा-‘इसीलिए तुम मां के नाम नालिश करने आई हो?’

जलदबाला ने क्रोध से कहा-‘मुझे नालिश-मुकदमे से काम नही, केवल भीतर की बाते जता दी, नही तो मुझी को दोष देते।’

महेन्द्र बहुत देर तक चुपचाप बैठे रहे, फिर कहा-‘तुम्हारे बाप के घर तो रोज हांडी भी नही चढ़ती, तुम जमीदार के घर के काम को क्या जानोगी?’

इस बार जलदबाला ने भी क्रोध करके कहा-‘तुम्हारे मां-बाप के घर कितनी अतिथिशालाएं है, जरा मै सुनूं तो?’

महेन्द्र ने तर्क-वितर्क नही किया, चुपचाप सो गये। सुबह उठकर पार्वत के पास आकर कहा-‘कैसा विवाह किया मां, इसको साथ लेकर गृहस्थी चलाना कठिन है। मै कलकत्ता जाऊंगा।’

पार्वती ने अवाक्‌ होकर कहा-‘क्यो?’

‘तुम लोगो को कड़ी बाते कहती है, इसलिए मैने उसका त्याग किया।’

पार्वती कुछ दिन से बड़ी बहू के आचरण देखती आती है, किन्तु उसने उस बात को छिपा के हंसकर कहा-छिः! वह तो बहुत अच्छी लड़की है ऐसा न कहो!’ इसके बाद जलदबाला ने एकान्त मे बुलाकर पूछा-‘बहू! झगड़ा हुआ है क्या?’

सुबह से स्वामी के कलकत्ता जाने की तैयारी देख जलदबाला मन-ही-मन डरती थी, सास की बात सुनकर रोते-रोते कहा-‘मेरा दोष नही है मां! किन्तु यही दासी सब ख्खरच-वरच की बाते करती है।’

पार्वती ने तब सभी बाते सुनी और आप ही लज्जित होकर बहू की आंखें पोछकर कहा-‘बहू, तुम ठीक कहती हो। किन्तु मैं वैसी गृहस्थिन नही हूं, इसीलिए खर्च की ओर ध्यान नहीं रहा।’

फिर महेन्द्र को बुलाकर कहा-‘महेन्द्र, बिना किसी अपराध के क्रोध नही करना चाहिए। तुम स्वामी हो, तुम्हारी मंगल-कामना के सामने स्त्री के लिए सब-कुछ तुच्छ है। बहू लक्ष्मी है।’ किन्तु उसी दिन से पार्वती ने हाथ मोड़ लिया। अनाथ, अन्धे, फकीर आदि कितने ही लोग लौटने लगे। मालिक ने यह सुन पार्वती को बुलाकर कहा-‘क्या लक्ष्मी का भंडार खाली हो गया?’

पार्वती ने साहस के साथ उत्तर दिया-‘केवल देने से ही नही चलता कुछ दिन जमा भी करना चाहिए।

देखते नही, खर्च कितना बढ़ गया है?’

‘इससे क्या मतलब, मुझे कै दिन रहना है, पुण्य-कर्म करके परलोक तो बनाना ही चाहिए?’

पार्वती ने हंसकर कहा-‘यह तो बिल्कुल स्वार्थ की बात है। अपना ही देखोगे और लड़की-लड़को को क्या बहा दोगे? कुछ दिन तक चुप रहो फिर सब उसी तरह चलेगा। मनुष्य के काम का कभी अन्त नही होता।’

अस्तु, चौधरी जी चुप हो रहे।

पार्वती को कोई काम नहीं रहा, इसी से चिन्ता कुछ बढ़ गयी। किन्तु सारी चिन्ता रहती है जिसकी आशा नही रहती, उसकी दूसरे प्रकार की चिन्ता रहती है। पूर्वोक्त चिन्ता मे सजीवता है, सुख है, तृप्ति है, दुख है और उत्कंठा है। इसी से मनुष्य श्रान्त हो जाते है-अधिक काल तक चिन्ता नही करते। किन्तु नैराश्य मे सुख नही है, दुख नही, उत्कंठा नही है केवल तृप्ति है। नेत्र से जल झरता है, गम्भीरता भी रहती है, किन्तु नित्य नवीन मर्मवेदना नही होती। हल्के बादल के समान इधर-उधर मंडराती है। जब तक हवा नही लगती, तब तक स्थिरता रहती है और ज्यों ही हवा लगती है गायब हो जाती है। तन्मय मन उद्वेगहीन चिन्ता मे एक सार्थक लाभ करता है। पार्वती की भी आजकल ठीक यही दशा है। पूजापाठ करने के समय अस्थिर, उद्देश्यहीन और हताश-सी रहती है; मन चटपट तालसोनापुर के बंसीवाड़ी, आम के बगीचे, पाठशाला, घर, बांध के तीर आदि स्थानो मे घूम आती है। इसके बाद वह किसी ऐसे स्थान मे जा छिपती है कि पार्वती स्वयं अपने आपको ढूंढकर बाहर नही निकाल सकती।

पहले होठ पर कुछ हंसी की रेखा दिखाई पड़ती है, फिर तत्काल ही आंख से एक बूंद आंसू टपककर पंचपात्र के जल से मिल जाता है। तब भी दिन कटता ही है। काम-काज मे, मधुर-मधुर बातचीत मे, परोपकार और सेवा शुश्रुषा मे दिन कटता था और अब उसे छोड़ ध्यानमग्ना योगिनी की भांति भी कटता है। कोई लक्ष्मी-स्वरूपा अन्नपूर्णा कहता था और कोई अन्यमनस्का, उन्मादिनी कहता था। किन्तु कल सुबह से कुछ और ही परिवर्तन देखा जाता है। वह कुछ तीव्र और कठोर हो गयी है। ज्वार की गंगा मे हठात्‌ भाटा का आरम्भ हुआ। घर मे कोई इसका कारण नही जानता, केवल हम लोग जानते है।

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